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कविता- पता चला है तुम भी इसी शहर में हो

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बारिश बरस के रुक गई है आसमा में पानी के बादल मडरा रहे हैं हवाएं ठंडी हो गई हैं और मस्ती से नाच रही है कह रही है तुम भी इसी शहर में हो । जमी की सोंधी खुशबू  पूरे फिज़ा में महक उठी है इन खुस्बू से पता चला है तुम भी इसी शहर में हो । चिड़ियों का एक झुंड निकल पड़ा है घौसलों से इस नए मौसम की सैर को न जाने क्या ये बातें कर रही हैं या कोई संगीत की धुन सजा रही हैं इनके गीतों से पता चला है तुम भी इसी शहर में हो । न जानें क्यों इतनी खुश हूं मैं तेरी यहां उपस्थिति पर  न बातें हैं न मुलाकाते हैं एक अरसा हो गया है जैसे पर मैं शायद ख़ुश हूं  उन पुरानी यादों और मुलाकातों पर हवाओं पर मैंने भी भेजा है  ये पैग़ाम मैं भी हूं  इसी शहर में ।

कविता - एक चिट्ठी

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एक चिट्ठी आई उसका एक लम्बे वर्षों में दूर परदेश में  रहता है वो यही पांच छै वर्षों से शहर उसे रास आया हम यहीं हैं बरसों से कहां है वो ये ना मुझसे पूछना बात चीत नहीं हो पा रही ना जाने कितने वर्षों से है सुरक्षित यही काफी है इन आंखों में नींद आ जाने को मैं जानता हूं वो खुश हैं और वो जानता है हम बहुत खुश हैं हां हम हैं मेरे बेटे तुम्हें ख़ुश देखकर  चिट्ठी हाथों में हैं मेरे पर ना जानें नहीं जी कर रहा पढ़ने को

कविता - तेरी खुशबू

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एक कस्ती हैं फूलों से भरी और तैर रही है तेरी नदी में जो पसंद हो चुन लेना मैं जिंदा हूं तेरी खुस्बुओ में ।।

कविता - दो शब्द

बस सूखे थे पत्ते उसके आपने डाल सूखा समझ काट दिया थोड़ी जरूरत थी पानी की उसे आपने गंगा जल ही पिला दिया ।।

कविता- वो शाम का लाल बादल