कविता- भोर की आशा
किरण सी आ दिखती है
सुस्त प्राण चुस्त हो
जीतने दुनियाँ को निकलती है
काया कल्प निहारकर इत्र टाई डालकर योग्यता के पर्चें बाहों में दबाएं परिचय पत्र लटकाकर
चली जा रही है दुनियाँ
फिर से वही रेस में
जिसमें कल धक्कर फिर वापस
आ गएं थे, किसी और भेस में
पर मन में वही ढाडस है क्या हुआ आज जो बीत गया
पर कल कभी बीतेगा नहीं
अवसर की तलाश में कभी
फिर वही मरीचिका दिखनें
लगती है
सुस्त प्राण चुस्त हो
जीतने दुनियाँ निकलती है।
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