कविता- यादों की स्याही
यूँ ही जब कभी
शांत से बैठतें हैं
मन कुछ सोचनें को, मजबूर हो जाता हैं
गणनाएं करता रहता
अनेंक विचारों को
खुरदता ,
झांकता
पलटने लगता उन पन्नों को
और बस
उन पुराने , पन्नों में खो जाता
कभी हँसता ,
कभी उदास सा हो जाता
और सोचता कभी संभव हो
पीछे जा कुछ सुधार कर आता
पर अब ये ,
संभव कहाँ
जानता वो यह भी।
हाँ पन्ने अभी और बाकीं हैं
नए रंगों में सजनें को
नए रचनाएँ करने को
न हो कोई निराशा,
न हो कोई खेद
जब फिर कभी
बैठूंगी पलटने,
इन यादों के पन्नों को ।
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