एक जमाना लगा था खुद को बनाते एक लम्हें में मैंने खुद को गवा दिया |
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बचपन की नींदें
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फिर से वही सुकून भरी सांसे माँ की गोद की वह एहसासे जंहा बेखौफ है मेरा निश्चल शरीर फिर से पाना चाहूंगी वो यादें दे दो प्रभु बचपन की वो नींदें आधुनिकता के इस दौड़ में थक गई मैं आज इस थकावट को दूर करने का कोई साधन नहीं मेरे पास नींदों में भी आँखे खुली रह जाती है सनसनी दुनियाँ का नजराना आँखों में आ जाती है नहीं आती मुझे बेखौफ सुकून सी नींदें हे प्रभु दे दो मुझे बचपन की वो नींदें गतिशीलता के इस जीवन में सांसों के एहसास को भी नहीं समझ प् रही शरीर में दर्द इतना की किस अंग में तकलीफे नहीं जान पा रही दर्द का न हो अहसास वो विश्राम मुझे दिला दे हे प्रभु बचपन की वो नींदें लौटा दे ||
मेरा मुझ पर सितम
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mridula bhaskar gond सुनती हूँ बातें तेरी पर अनसुना कर जाती हूँ मैं पड़ती हूँ आँखें तेरी पर अनपढ़ सी दिखा जाती हूँ मैं समझती हूँ तेरी पागल सी हरकतें पर नासमझ बन जाती हूँ मैं महसूस करती हूँ तेरा दर्द पर बेदर्द तुझे दिखा जाती हूँ मैं नहीं बढ़ा मुझसे नजदीकियां या निभाने का साहस भी रख कहतें रहोगे तुम अपनी लाख दफा पर मुझे सुनने का सयम भी रख पर बदलती कँहा हैं तेरी आदतें खुद मैं ही बदलाव कर जाया करती हूँ तुझ पर किये मेरे सितम पर कभी खुद को रुला जाती हूँ |
एक मुलाकात
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mridula bhaskar gond लम्बे दिनों बाद फिर उनसे मुलाक़ात हुई मिली नज़रे लेकिन उनसे न कोई बात हुई मैं उन्हें पहचानते रह सी गई और वो मुझे पहचानते रह से गए देखते ही देखते हम दो पल अनजाने रह गए उस सफ़र के कुछ पल को चुराने का मन था पर एक पल आँख झुकी देखा वो जाने लगे जी भर उठा लगा, जोर की आवाज लगा दूँ पर उनका नाम क्या था ? बस आँखे उन्हें दूर तक निहारने लग गए न जाने फिर कब होगी मुलाक़ात उनसे अब नए अफ़साने हम बनाने लग गए हम तो छोड़ गए उन्हें ,उनकी यादों के साथ कुछ ऐसा हो की उन्हें ,हम याद आने लगे ||
शाम तक
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कहां खो गये तुम सुबह के उजाले में देखो भीड़ बड़ी है दुनिया में रास्ते हैं बड़े उलझे से और लोग हैं बहुत सख्त पता साथ रखना पर पता याद रखना किसी को क्या फुरसत पड़ी तुम्हें रास्ता पार कराने में खैर आना तो तुम्हें होगा पर याद रहे आज के ढलते शाम के पहले इन समुद्री लहरों के ऊँचे उठने से पहले पक्षियों के घोसले में लौटने से पहले चांदनी के आसमान में बिखरने से पहले तुम इस दरवाजे लौट आना लौट आना तुम कुछ याद के साथ लौट आना तुम कुछ अहसास के साथ लौट आना तुम हमारे प्यार के साथ
मेरा पत्र
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मेरा पत्र कलम हाथ में हैं और निगाह इस कागज के पन्ने पर, सोच रही लिख दूं तुझे एक खत , पर अब खतों का रिस्ता कहां, सबर कहां तुम्हे पढ़ने और मुझे लिखने का, पर फिर भी लिख रही हूँ फिर कभी सोचती , क्या रखा है इन शब्दों और स्याहीयों में पर शायद, कुछ अहसास ही काफी होगा, फिर मैं सोचू, कैसे पहुँचे तुम तक ये हवा की महक, कैसे पहुँचे तुम तक मेरी मेहंदी की महक, कैसे दिखाऊ आज गमले में हमारे, एक नया फूल खिला है ये बरसात कैसे तुम तक भेजु , जो आंगन में गिर कर बहते जा रहा है। कैसे भेजु ये ठंडी हवा, जो इन बरसात के बूंदों को छूते हुए आ रही है। देखो बादल में छुपे सूरज को, जो डर रहा हो जैसे बाहर आने को । इन अहसासों को कैसे कहूं और कैसे लिखूं पर फिर भी लिख रही हूँ, कुछ अपने अर्थो में और कोशिश कर रही हूँ ऐ दृश्य इन शब्दों में बस जाये, और जब तुम इन्हें पढ़ों ये बाहर निकल आये तब जब देखुंगी, तुम्हें पढ़ते इन्हें, तुम्हारे चहेरे के हर रंग और हर ढंग को और तब मैं अपने इस लेखन की सफलता और असफलता का परिणाम दे पाऊंगी ।
मेरा भी घर
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मेरा भी घर सपनों में भी न हिम्मत हो चाहने को ऐसी एक चाहत मेरा घर सूरज की तेज किरणों से बारिश की तेज झरनों से मुझको बचाये ऐसा घर मेरी चाहत मेरा घर छोटा हो कोई बात नहीं टूटा सा हो कोई परवाह नहीं घिरा हो चार दीवारों से और मेरे सिर पत एक छत मेरी बस चाहत मेरा घर दिनभर के इस थकान को इस कोयले सी जान को ले जाऊ कहां जहां न कोई डर मेरी चाहत मेरा घर इन्सान के इस अर्थ में मेरी परिभाषा भी ले जाओ कोई कमाता हूँ, खाता हूँ, रोता हूँ और गुनगुनाता हूँ ऊपर पुल है और बगल सड़क न परिवार है न आधार है। कैसे पूरा होगा तेरा वर तेरी चाहत मेरा घर ।
कविता- पता चला है तुम भी इसी शहर में हो
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बारिश बरस के रुक गई है आसमा में पानी के बादल मडरा रहे हैं हवाएं ठंडी हो गई हैं और मस्ती से नाच रही है कह रही है तुम भी इसी शहर में हो । जमी की सोंधी खुशबू पूरे फिज़ा में महक उठी है इन खुस्बू से पता चला है तुम भी इसी शहर में हो । चिड़ियों का एक झुंड निकल पड़ा है घौसलों से इस नए मौसम की सैर को न जाने क्या ये बातें कर रही हैं या कोई संगीत की धुन सजा रही हैं इनके गीतों से पता चला है तुम भी इसी शहर में हो । न जानें क्यों इतनी खुश हूं मैं तेरी यहां उपस्थिति पर न बातें हैं न मुलाकाते हैं एक अरसा हो गया है जैसे पर मैं शायद ख़ुश हूं उन पुरानी यादों और मुलाकातों पर हवाओं पर मैंने भी भेजा है ये पैग़ाम मैं भी हूं इसी शहर में ।