कविता- सोच कोई शब्द नया
सोच कोई शब्द नया
दिलो की उमंगें जवा
बादलों को पंख मिले
बरसती ये जंहा फिरे
कागज़ के इस नाव को
तू ऐसे न सागर में गिरा
दिलों के ताल खोल के
बना ले कोई सागर नया
समय के इस रफ़्तार को
जाना कहाँ क्या पता
छोड़ तू इस हिसाब को
घड़ी कोई अपना बना
सपनों के ओस बूंदों को
अब तो जमी पे गिरा
नींद को सिरहाने पर रख
सपना कोई अपना बना ।
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